Monday, March 16, 2009


आजकल ये जिन्दगी कुछ यूँ भी काटी जा रही है
मेरी तन्हाई भरी सड़कों पे बांटी जा रही है

अक्ल पे गुरबत का साया है ज़रूरी इसलिए
उंगलियाँ, गर्दन कभी तनखाह काटी जा रही है

बात जो मैंने कही उस रोज़ तेरे कान में
शहर के घटिया रिसालों में वो छापी जा रही है

भेड़ का चेहरा नफ़रत और कोयल की आवाज़
bhediyon mein आजकल ये सिफत आती जा रही है

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