आजकल ये जिन्दगी कुछ यूँ भी काटी जा रही है
मेरी तन्हाई भरी सड़कों पे बांटी जा रही है
अक्ल पे गुरबत का साया है ज़रूरी इसलिए
उंगलियाँ, गर्दन कभी तनखाह काटी जा रही है
बात जो मैंने कही
उस रोज़ तेरे कान में
शहर के घटिया रिसालों में वो छापी जा रही है
भेड़ का चेहरा नफ़रत और कोयल की आवाज़
bhediyon mein आजकल ये सिफत आती जा रही है
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