Friday, March 13, 2009

मेरी बात


व्यंग की भाषा बोलना मेरे हिसाब से कुछ ऐसा है मानो किसी किताब को अन्तिम पन्ने से पढ़ना

मगर कुछ बुधिजीवीओं को शायद ये पसंद नही आए लेकिन कोई कार्टून ड्राइंग रूम की दिवार पर

लटकी पेंटिंग नहीं कार्टून तो कभी कभी एक मच्छर जैसा तकलीफदेह भी हो सकता है

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